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Tuesday, July 28, 2009
Posted by rachit kathil

शीशे का दी ,आये थे लेकर पत्थरों के शहर मैं गैरों से बचाते रहे ,टूटा अपनों की ठोकर मैं ...............मुद्दतों से प्याशे थे क्या बताये अब अपना हाल फर्क न कर सके यारों हम "आव और जहर" मैं ..............उसने साहिल पर ही डुबोया मेरा आके तो सफीना जिसके हवाले खुद ही किया था हमने तूफां की लहर मैं गम नहीं रुसवाई का हमको इस भरी महफ़िल मैं अब तो उसने ही गिराया नजर से जिसको बसाया हमने नजर मैं .........उम्र भर तुम याद हमको अब तो आया करोगे जरूर ताड्पेगे हम जख्मों से जब जो दिए तुमने जिगर

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