क्या पार्टी अपने बलबूते पर चुनाव जीतती है या फिर पार्टी के किसी बड़े नेता की छवि को दिखाकर चुनाव जीता जाता है यह बात उतनी ही गलत है जितना अपने आप को परिपक्व बताना क्योकि बना कार्यकर्त्ता के कोई भी चुनाव नहीं जीता जासकता उन्ही कार्यकर्ताओ की भावनाओ से खेलना सभी पार्टी की आदत सी बनगए है पहले तो पार्टी उन्हें चुनाव लड़ने के लिये तेयार करती है और फिर यदि उस सीट पर किसी बड़े नेता जी के पुत्र व् पुत्री या किसी रिश्तेदार का दिल आ जाये तो क्या कहना ? क्योकि पार्टियों के अन्दर कार्यकर्ताओ की जरा भी कद्र नहीं है ये तो पार्टी की निति ही है की जब मन में आया तो किसी भी कार्यकर्त्ता को कुछ समय के लिए खुश कर दिया और फिर अपना कम निकालकर उसके अरमानो के तोड़ दिया यह कहा का इंसाफ है ? जिस तरह हल ही में देश की सबसे बड़ी पार्टी ने कहा था कि उनकी पार्टी में सबसे पहले कार्यकर्ताओ को आगामी चुनाव में टिकिट देगी लेकिन ये सारी बाते टिकिट के एलान के पहिले ही धराशाही हो गई अर्थात जिन कार्यकर्ताओ को टिकिट मिलने कि उमीद थी उनकी उमीदो पर भी पानी फिर गया क्योकि उनकी सीट पर बड़े बड़े नेताओ के बेटे व् बेटी उपर से ही चुनाव मदन में उतर्दी जाती है एसा ही हर पार्टी में हो रहा है ये सोचना भुत जरुरी है कि कार्यकर्ताओ के साथ जो हो रहा है वह सही है या गलत ?
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